ऊखीमठ! भारतीय संस्कृति अरण्य प्रधान रही है। हमारे ऋषि - मुनियों ने पेड़ों के नीचे बैठकर मानव जीवन की गम्भीर समस्याओं पर चिन्तन किया और उपनिषदों तथा वेद - पुराणों की रचना की। वे प्रकृति के पास शुद्ध भावना से गये और उसके प्रति आदर और प्रेम रखा। हम सब वनवासियों को विरासत में इन ऋषि - मुनियों की सीख का फल मिला है।
उनके बचपन आज भी पर्वतों के वातावरण में गूंज रहे हैं! मनुष्य और प्राणियों का प्रकृति से जन्मजात सम्बन्ध रहा है और उन सम्बन्धों का निर्वहन आज भी छह माह सुरम्य मखमली बुग्यालों में प्रवास करने वाले भेड़ पालकों द्वारा किया जा रहा है।केदार घाटी के त्रियुगीनारायण - पवालीकांठा, तोषी - वासुकी ताल, केदारनाथ- खाम,चौमासी- खाम, रासी- मनणामाई, मदमहेश्वर- पाण्डवसेरा- नन्दीकुण्ड, बुरूवा- टिगरी-विसुणीतात, गडगू- ताली, तुगनाथ - रौणी इलाकों के आंचल में फैले सुरम्य मखमली बुग्यालों में भेड़ पालकों द्वारा छह माह प्रवास कर अपनी पौराणिक परम्परा को जीवित रखने में अहम योगदान दिया जा रहा है।
केदार घाटी, कालीमठ घाटी, मदमहेश्वर घाटी व तुंगनाथ घाटी के ऊचांई इलाकों में छह माह प्रवास करने वाले भेड़ पालक चैत्र मास में गाँवों से मखमली बुग्यालों के लिए रवाना होते हैं तथा आश्विन माह के अन्त तक वापस गाँव लौटते हैं। छह माह मखमली बुग्यालों में प्रवास करने वाले भेड़ पालकों का छह माह का प्रवास किसी साधना से कम नहीं है। आज के युग में भी बिना संचार व विद्युत सुविधा के बुग्यालों में प्रवास करना परम पिता परमेश्वर व प्रकृति की सच्ची तपस्या है।
कई किमी दूर रहने पर एक दूसरे की चूल्हे की ज्योति ही प्रकृति की गोद में रात्रि गुजारने का सहारा देती है। मखमली बुग्यालों में प्रवास करने वाले भेड़ पालक जब दूसरे भेड़ पालक के पड़ाव पर पहुंचते हैं तो दोनों के चेहरों पर आत्मीयता झलक होती है तथा सिद्धवा,विद्धवा के गीतों में रात्रि कब गुजर गयी इसका आभास दोनों भेड़ पालकों को नहीं होता है। सुबह भेड़ पालकों के विदाई का क्षण भी बड़ा मार्मिक होता है विदा होने वाला भेड़ पालक मीलों दूर से मुड़ कर अपने मित्र के साथ गुजरी रात्रि की यादों को मन ही मन स्मरण कर भावुक हो जाता है जबकि अपने पड़ाव से विदा देने वाला भेड़ पालक भी अपने मित्र की राह को मीलों दूर तक दिशा धियाणियों की तरह निहारता रहता है। छह माह मखमली बुग्यालों में प्रवास करने वाले भेड़ पालक दाती व लाई त्यौहार को प्रमुखता से मनाते हैं। दाती त्यौहार रक्षाबन्धन के नजदीक कुल पुरोहित द्वारा निर्धारित तिथि पर मनाया जाता है जबकि लाई मेला भाद्रपद मास की पांच गते को मनाये जाने की परम्परा है मगर कुछ इलाकों में अब सुविधा अनुसार आश्विन माह में भी लाई मेले को मनाया जाने लगा है। दाती त्यौहार के दिन भेड़ पालकों द्वारा देवी- देवताओं को अर्पित होने वाले सभी पकवान बनाये जाते हैं तथा एडी़ आछरियो के लिए चौलाई के खील व मीठें पकोड़े बनानी की परम्परा है।
सभी पकवान तैयार होने के बाद सभी भेड़ों को एक स्थान पर एकत्रित किया जाता है। तथा सबसे पहले भेड़ पालकों के अराध्य देव सिद्धवा,विद्धवा तथा खेती के क्षेत्रपाल की पूजा की जाती है। उसके बाद वन देवियों, एडी़ आछरियों की पूजा सम्पन्न होने के बाद भेडो़ के झुड़ की चारों तरफ चार दिशाओं की पूजा होती है और अन्त में उस भेडो़ के झुड़ में जो सबसे बड़ा व बलशाली भेड़ होगा उसे सेनापति की उपाधि देकर उसकी पूजा करने का विधान है। दाती मेले के बाद बुग्यालों में प्रवास करने वाले भेड़ पालक की ब्रह्मचर्य की अवधि समाप्त हो जाती है। यह नियम जंगलों में रहने वाले भेड़ पालक पर लागू नहीं होता है। लाई मेला मखमली बुग्यालों के बजाय निचले हिस्सों में मनाया जाता है क्योंकि लाई मेले में भेड़ पालकों के परिजन, रिश्तेदार और ग्रामीण भी शामिल होते हैं। लाई मेला धीरे - धीरे भव्य रूप लेने लगा है! लाई मेले में भेड़ों की ऊन की छढाई व भेड़ पालकों के आपसी लेन - देन को चुकाने की परम्परा है। लाई मेले के बाद भेड़ पालक फिर बुग्यालों की ओर चले जाते हैं।भेड़ पालकों के अराध्य देव साथ चलने वाली देवकंडी व सिद्धवा विद्धवा का डमरू है जिससे भेड़ पालक हमेशा साथ रखकर पूजा करते हैं। इनके अलावा भेड़ पालक जिस बुग्याल में प्रवास करते हैं उस स्थान का क्षेत्रपाल भी भेड़ पालकों का अराध्य देव माना जाता है। भेड़ पालकों के बुग्यालों से गाँव लौटने पर क्षेत्रपाल के कपाट बन्द करने की परम्परा है।
लोक मान्यताओं के अनुसार एक बार पार्वती भेष बदलकर कर भेड़ पालकों की दिनचर्या जानने के लिए पहुंची तो भेड़ पालकों ने पार्वती को बुरी निगाह से देखा तो पार्वती ने भेड़ पालकों को श्राप दिया कि आज से तुम्हारा चुल्हा उलटा होगा उस दिन से भेड़ पालकों का खाना पकाने का चुल्हा दरवाजे में लगाया जाता है तथा चुल्हे का मुख्य भाग बाहर की ओर होता है।विगत 30 वर्षों से भेड़ पालन का व्यवसाय कर रहे बीरेंद्र सिंह धिरवाण ने बताया कि भेड़ पालकों के घर पर खाना परोसना वर्जित है इसलिए भेड़ पालकों को खाना खुले बुग्यालों में ग्रहण करना पड़ता है। 15 वर्षों से भेड़ पालन का व्यवसाय कर रहे कलम सिंह पानी, बिजली व संचार की है! शिक्षाविद देवानन्द गैरोला, पूर्व प्रधान राजकुमारी राणा, सरिता नेगी, पुष्पा पंवार,राकेश नेगी, धीरेन्द्र थपलियाल, बीरेन्द्र पंवार, हरेन्द्र खोयाल, दिलवर सिंह नेगी, गजपाल भटट् बताते है कि भेड़ पालन व्यवसाय दशकों पूर्व परम्परा है।