स्त्रियों को कभी- कभी अपने भीतर भी झांक लेना चाहिए - शशि देवली

भाग - 2
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स्त्रियों को कभी- कभी अपने भीतर भी झांक लेना चाहिए
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आज के समय की भोग विलासिता की दुनिया स्त्री चरित्र का निर्माण किस प्रकार से कर रही है यह सोचनीय विषय है।अक्सर चर्चा रहती है कि स्त्री कुंठा में जी रही है उसे आजादी चाहिए जिसके लिए प्रत्येक वर्ष महिला सशक्तिकरण दिवस भी मनाया जाता है और हर प्रकार से स्त्रियों को जागरुकता लाने सम्बंधी जानकारी दी जाती है तथा बार - बार बताया जाता है कि वह कमजोर नहीं है बल्कि दो घरों की बुनियाद है जिसके बूते पर वह समाज को ऊंचा उठाने और नयी दिशा प्रदान करने में अपनी अहम भूमिका निभा सकती है।
माना कि पुरुष के विचारों के वह अधीन रही है सामाजिक अवहेलना भी वह झेल रही है मगर इसका मतलब यह हरगिज नहीं कि वह स्वयं को आजाद और सशक्त तब माने जब वह अपने शरीर का प्रदर्शन करे और पुरुष को अपनी ओर आकर्षित करने का यही एकमात्र विकल्प समझे।सिनेमा के दौर ने यह सब इतना आसान और सरल बना दिया है कि कोई भी लड़की शीघ्र ऊंचाइयों तक पंहुचने के लिए नग्नता को ही सफलता की सीढ़ी मानने लगी है ।उसे लगता है कि मुझे अगर आगे बढ़ना है और फेमस होना है तो अपना शरीर परोसकर वह किसी को भी लुभा सकती है और सफल औरत बन सकती है ।मगर यह तो गलत है आखिर कब समझेगी वह और वही सिनेमा की छवियों की देखा-देखी हमारा समाज भी दूषित होता जा रहा है। आखिर किस तरह की आजादी चाहती है वह।
दुनिया तुम्हें मूर्ख समझ कर बार - बार बता रही है कि तुम बस केवल एक शरीर भर हो।पहले तुम चारदीवारी में थी पर्दे में जीती थी तो तुम केवल घर के पुरूषों की देह थी मगर जब से तुम अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही हो और हर क्षेत्र में कार्य करने की क्षमता का अनोखा प्रर्दशन कर रही हो तब से तुम सार्वजनिक देह हो गयी हो फिर भी तुम आजादी के भ्रम में जी रही हो। कानून ने हमेशा स्त्री पीड़ा को समझा है इसलिए उनको न्याय व्यवस्था की तरफ ले जाकर बेफिक्री में जीना सिखाया। लैंगिक भेदभाव को मिटाकर बराबरी का दर्जा देने का वादा किया है। किसी भी प्रकार के हिंसात्मक घटनाओं और दहेज जैसे कुकृत्य से मुक्ति दिलाने का वादा भी किया और बना दिया तुमको ताकतवर नारी। दुनिया भर के सौन्दर्य प्रसाधनों में तुम जीने लगी,अपने शरीर को निखारने के लिए महंगे से महंगे उत्पादों का इस्तेमाल करने लगी।
  वर्तमान में औरत समझने लगी कि स्त्री का अस्तित्व जो वह पीढ़ियों से खोज रही थी वह महंगे शैंपू, महंगे कपड़े,महंगी गाड़ी और महंगे मोबाइल से है। यह भी तो पुरुषों ने ही कहलवाया है समझती क्यों नहीं औरत। उन्होंने तुम्हें अपने लिए तैयार किया है ताकि तुम आज की औरत कहलाओ और कहो कि तुम तो अपने मुताबिक जी रही हो। समाज ने तुम्हें वो दर्जा दिया है जिसकी तुम हकदार हो।क्या तुम्हारी आजादी तुम्हारे जिस्म से झलकती है या तुम्हारे पर्स से जिसकी मदद से तुम अपने आप को एक ब्रांड बनाकर पेश कर रही हो।नारी के अंदर बड़े-बड़े बुद्धिमानों को पछाड़ने का हुनर होता है लेकिन उसने अपनी देह को दांव पर नहीं लगाया है तो वह पीछे धकेल दी जाती है।आज शिक्षा का विस्तार इतना विशाल है कि दुनिया का कोई भी कोना इससे अछूता नहीं रहा है। दुनिया भर की दिमागदार औरतों के किस्से प्ररेणा बनकर हमारे सामने हैं मगर फिर भी तुम्हारे भीतर प्रेरणा का संचार नहीं होता। तुम सफल स्त्री बनने की चाह रखती  हो वह बुरा नहीं है मगर तुम्हें यह वहम रहता है कि सफल होना मतलब पुरुषों की विलासिता का सामान बनना और क्या चाहिए उस पुरुष को उसने तो अपनी नजरों से तुम्हें तैयार किया है ताकि तुम आसानी से उसके बिस्तर तक पंहुच सको।जब तुम इस तरह सामग्री के रूप में इस्तेमाल की जाती हो तो स्वयं के साथ तुम सभ्य पुरुषों की भी वाट लगा देती हो। आखिर वह भी किस- किस को समझाए कि सभी पुरुष स्त्री देह की लालसा नहीं रखते बल्कि कुछ एक राम चरित्र की मिसाल भी बनाए हुए हैं।
तुम चमक रही हो, तुम लहरा रही हो, तुम मैदान फतह भी कर रही हो,मगर ये भी मान लो कि तुम खेल के मैदान में हो।दिन भर रैफरी तुम्हें अपने इशारों पर दौड़ा रहा है और तुम उसके मुताबिक दौड़ भी रही हो, जीत भी रही हो मगर शाम को थक हार कर जब अपनों के बीच पंहुचती हो तो सच बताओ अहसास कर पाती हो कि सुकून कहां है। क्या तब तुम झेल पाती हो उन नजरों को जो तुममें अपनी दुनिया तलाशते हैं।तब अपनों की घृणा को तुम खुद की अवहेलना समझती हो और बेघर हो जाने के लिए विवश हो जाती हो क्योंकि तुम्हें लगता है तुम अपने जीवन के अहम फैसले लेने के लिए सक्षम हो।मध्यम वर्गीय और गरीब घर की कहानी कुछ अलग है।वह हमेशा महत्त्वकांक्षी होते हुए दफन करती है खुद की इच्छाओं को और समाज के बीचों-बीच लटकती हुई अपने जीवन की गाड़ी को धकेलती है।सही मायने में वही औरत है जो अपने सपनों के लिए निरंतर लड़ रही है।जिसके रास्ते तो बहुत लंबे हैं लेकिन मंजिल कहीं नहीं है।ऐसी औरतें रास्ता भटक जाती हैं और शार्टकट लेकर ताकतवर के हाथों की कठपुतली बन जाती हैं।इस तरह संघर्षो की एकरसता की बात करते-करते वह या तो टूट जाती है या बिखर जाती है जब झांक कर देखती है अपने गिरेबान में।गरीब स्त्री की तो क्या बात करें।वह सुर्खियों में कम ही आती है क्योंकि उसकी देह की साज ओ बनावट को संवारने का अवसर नहीं मिलता वह तो मशगूल है रोटी कमाने में।वह अपने शरीर का प्रर्दशन भी नहीं करती क्योंकि फटे कतरनों में तो खुद ही झांकते हैं उसके अंग उसके चिंथणो से बाहर। इसलिए उसके चरित्र का आकलन कर पाना समाज को कठिन लगता है तो वह उस ओर ध्यान ही नहीं देता कि आखिर ये आखिर ये महिलाएं भी अपने स्वन्त्र जीवन यापन की कल्पना करती होगी।वह तो बड़ी सहजता से अपनी परंपराओं को भी कुचल देती है और बिना किसी छींटाकशी के आगे भी बढ़ जाती है।इनकी गरीबी बाधक बनती है इनको शरीर दिखाकर बड़ा बनने के लिए क्योंकि चमकदार सौन्दर्य प्रसाधनों की मोहताज होती हैं ये,अपनी खूबसूरती से नहीं लुभा पाती भोगी पुरुषों को तो इनके नंगे बदन की लालसा में लार नहीं टपकाते पुरुष। हां हादसों की जब ये शिकार हो जाती है तो सुर्खियों में आती है चार दिन फिर बाद में सब सामान्य हो जाता है।
सही मायनों में औरत भूल गयी है कि उसका स्थान कहां है।हर चालाक नजर का निशाना बनते-बनते वह भ्रमित हो गई है कि वह अस्तित्व को खोजते- खोजते अपने शरीर पर से खुद ही अपना मालिकाना हक भूल गयी है।स्वयं की ताकत को हर रोज न्यौछावर कर वह दीन हीन होकर क्यों जीना चाहती है।अब भी वक्त है स्त्रियों ! कभी- कभी झांक लिया करो अपने भीतर और खोज लिया करो अपने अंदर की उस वास्तविक स्त्री को।


शशि देवली
गोपेश्वर चमोली उत्तराखण्ड