देवभूमि हमारी संस्कृति हमारी पहचान - अशोक जोशी🖋

आज का पहाड़-----------
 लेख -अपनी कलम से अशोक जोशी🖋
 पता- नारायणबगड़ चमोली
साथियों कुछ सालों से उत्तराखंड विषय  का गहन अध्ययन कर रहा हूं, और जब भी पढ़ता हूं अपने पहाड़ों के विषय में, पढ़ता हूं जब अपने गढ़वाल कुमाऊं के  त्योहारों,  मेलों,  मंदिरों,  जनजातियों, घाटियों, बुग्यालों , वेशभूषाओं , मातृभाषाओं, लोकगीतों , लोकनृत्यों,  धार्मिक यात्राओं, चोटियों,  पहाड़ी फलों, खाद्यान्नों,  रीति-रिवाजों के विषय में तो स्वयं को बड़ा गौरवान्वित महसूस करता हूं।  कि मैं देवभूमि उत्तराखंड से हूं। गर्व करता हूं कि मैंने गढ़देश गढ़वाल में जन्म लिया, साथियों शिक्षा,  स्वास्थ्य,  रोजगार जैसे संसाधनों के अभाव  से मैं जानता हूं कि हमारे पहाड़ के लोगों ने स्वयं को पलायन कर लिया है। किंतु मित्रों बढ़ते समय के साथ- साथ पलायन पहाड़ में इस कदर प्रभावी होने लगा कि गांव के गांव  खाली हो गए, और पहाड़ों की समृद्ध मातृ भाषा (गढ़वाली कुमाऊनी ), सहयोगात्मक  लोक  परंपराएं,  पहाड़ी भोज्य पदार्थ (आलू, मूली की थींचवाणी,  गहत का फाण्,  भट की भट्टवाणी आदि)  धार्मिक क्रियाकलाप (रामलीला,  पांडवलीला,  मंदिरों में नवरात्र का आयोजन आदि)  पहाड़ों तक ही सीमित रह गए । और आज हम इस कगार पर पहुंच गए हैं कि हमारी पहाड़ी संस्कृति विलुप्ता  के बिल्कुल निकट है । आज हमारे कई ऐसे  प्रवासी पहाड़ी नवयुवा छात्र हैं जो पहाड़ी वृक्ष बाज, ( उत्तराखंड का वरदान वृक्ष)   वाद्य यंत्र ढोल, ( उत्तराखंड का राजकीय वाद्य यंत्र)   पहाड़ी फल  काफल,  (उत्तराखंड का राजकीय फल)  लोक गायक गढ़ रत्न नरेंद्र सिंह नेगी जी,   राज्य की प्रथम महिला लोक गायिका कबूतरी देवी,  (तीजन बाई ) प्रथम महिला जागर गायिका  बसंती बिष्ट जी से  अनभिज्ञ हैं ।वे अनजान हैं उत्तराखंडी सिनेमा( गढ़वाली  एवं कुमाऊनी )  से,  अपरिचित हैं वह  कि गढ़वाली बोली की पहली फिल्म , (जगवाल)   कुमाऊनी बोली की पहली फिल्म,  (मेघा आ ) कौन थी ।वह अविदित है  कि गढ़वाली सिनेमा की सबसे सफल फिल्म (घरजवे)  कौन थी। वह अपरिचित है कि अजयपाल,  कप्फू चौहान , माधो सिंह भंडारी कौन थे  ईगास (दीपावली के 11 दिन बाद मनाए जाने वाली बग्वाल)  क्या है वे नहीं जानते ऐसी ही पहाड़ी संस्कृति से जुड़ी हुई तमाम बातें हैं जिनसे वह अज्ञात हैं मैं यह जानता हूं कि वह बॉलीवुड और हॉलीवुड सिनेमा कि बेहतर जानकारी रखते हैं , मैं जानता हूं कि वह बॉलीवुड सिनेमा  के सभी गायकों से  ज्ञात हैं , मैं जानता हूं कि वह क्रिसमस डे से भलीभांति  वाकिफ़ हैं । किंतु अपनी संस्कृति से ना जुड़ने के पीछे आखिर क्या कारण है ? दोष उनका नहीं  बल्कि उनके अभिभावकों का भी है जो अपने बच्चों को अपनी संस्कृति से रूबरू नहीं करा पा रहे हैं उनमें अपनी संस्कृति को जानने की भूख (इच्छा)  पैदा नहीं कर पा रहे हैं। साथियों यह एक बड़ी दुर्लभ विडंबना है आज हवा में झूमती हुई उस टहनी को अपनी जड़ का पता नहीं है। जिन  युवाओं ने मिलकर आज अपने पहाड़ को आधुनिकता में लाना था , आज वही दूसरी  संस्कृतियों की आधुनिकता में ढल कर स्वयं को विकसित समझ रहे हैं ।शहरों में रहने वाले हमारे  पहाड़ के कई ऐसे लोग हैं, जो गढ़वाली बोली को जानने के बाद भी बोलना नहीं चाहते हैं , आज हमारे कई पहाड़ी भाई बंधु दीदी भूली शहरों की आड़ में अपने पहाड़ियों के साथ भी हिंदीभाषी हो गए हैं।साथियों विषय पर यदि गौर किया जाए तो यह काफी चिंतनीय और  गंभीरता का विषय है,  गढ़वाली हमारी बोली होने के साथ-साथ सांस्कृतिक पहचान भी है।
 तो आइए हम सब मिलकर अपनी बोली भाषाओं व विशाल परंपराओं के संरक्षण हेतु कदम बढ़ाए । साथियों इस वक्त संपूर्ण विश्व कोरोना कि वैश्विक महामारी को झेल रहा है , वहीं इस दौरान हमारे प्रवासी भाई-बहन रिवर्स पलायन कर अपने पहाड़ों की ओर लौट रहे हैं।  मित्रों इस दुख की घड़ी में भी हमने अपने व अपने समाज के लिए,  अपने पहाड़ के लिए सुख देखना है। क्यों ना अब हम अपने पहाड़ों के विकास का मार्ग  स्वयं  प्रशस्त करें , पहाड़ों में ही कुछ ऐसा स्वरोजगार विकसित करें चाहे वह कृषि के क्षेत्र में हो, पशुपालन के क्षेत्र में हो मत्स्य पालन के क्षेत्र में हो,  शिक्षा के क्षेत्र में हो , परिवहन के क्षेत्र में हो , बागानों के क्षेत्र में हों,  हर क्षेत्र में हम अपने पहाड़ों को विकसित बना सकते हैं। बस इसके लिए हम सब को मजबूती के साथ दृढ़  संकल्पित व समर्पित  होने की आवश्यकता है।
अंत में आप सभी को मेरा सप्रेम प्रणाम 🙏पैलाग जय देव भूमि जय उत्तराखंड


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काली शिला की पूजा-अर्चना से मनुष्य को अभीष्ट फल मिलता है - ऊखीमठ से लक्ष्मण नेगी की खास रिपोर्ट : ऊखीमठ - देवभूमि उत्तराखंड की पावन धरती धार्मिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक दृष्टि से साधना के क्षेत्र में अपना सर्वोत्कृष्ट स्थान रखती है, वास्तव में सिद्धि पाने के लिए साधना सदा शान्त, एकान्त और सिद्ध स्थलों में ही लाभप्रद होती है। वेदव्यास की चिन्तन भूमि, पाण्डवों का स्वर्गारोहण, उद्वव की तपस्थली, राजा भगीरथ की साधना स्थली, आदिगुरु शंकराचार्य को प्रेरणा देने वाली और महाकवि कालिदास को जन्म देकर विश्व विख्यात बनाने वाली यह हिमालय की पावन धरती है, इसलिए हिमालय के उत्तराखण्ड को तपस्या के लिए सभी तपस्वियों ने चयन किया है। देवभूमि उत्तराखंड वास्तव में ऐसी मुख्य रमणीक देव स्थली है जहाँ कनखल सती कुण्ड से लेकर 12 हजार फीट के उतंग शिखरों पर शक्तिदात्री माँ के अनेक सिद्धपीठ विधमान हैं। यदि मानव के ह्दय में इन सिद्धपीठों के प्रति विश्वासमयी भावना हो तो जगत जननी माँ के दर्शन किसी न किसी रुप में किये जा सकते हैं। इसलिए शक्ति की साधना को ही समस्त कार्यो की सिद्धि माना जाता है! माँ जगत जननी की महिमा का वर्णन ऋषि मुनियों ने भी बड़ी गहनता से किया है तथा सर्व शक्तिमान देवताओं को भी सदा ही अपनी विपदाओं के निवारणार्थ इसी आध्या शक्ति की ही उपासना करनी पडी है।परम पिता भगवान शंकर व जगत जननी मोक्षदायिनी माँ भवानी की इस तपोभूमि उत्तराखंड के कण - कण में अवस्थित देवी के शक्तिपुजो में जो मानव अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करता है वह व्यक्ति सांसारिक सुखों को भोग कर अन्त में मोक्ष को प्राप्त कर युगों तक शिवलोक में पूजनीय होता है। केदार घाटी के अन्तर्गत सिद्धपीठ कालीमठ के पूर्व भाग में दो कोस दूर विशाल पर्वत पर विराजमान भगवती काली का तीर्थ काली शिला नाम से विश्व विख्यात है। इस तीर्थ में भगवती काली की विशाल शिला है तथा विशाल शिला पर 64 यंत्र विधमान हैं, भगवती काली शिला की पूजा करने से अखिल कामनाओं व अर्थों की पूर्ति होती है। काली शिला तीर्थ मधु गंगा व सरस्वती नदियों के मध्य विशाल पर्वत पर है! भगवती काली शिला मदमहेश्वर घाटी व कालीमठ घाटी के ग्रामीणों की अराध्य देवी मानी जाती है! मदमहेश्वर घाटी के राऊलैक तथा कालीमठ घाटी के ब्यूखी गाँव से पैदल मार्गों से सिद्धपीठ काली शिला पहुंचा जा सकता है। इस तीर्थ में भगवती काली के मन्दिर की पूजाये देव स्थानम् बोर्ड तथा विशाल शिला की पूजा स्थानीय हक - हकूकधारियों द्वारा की जाती है।भगवती काली शिला की महिमा का वर्णन क्रूम पुराण के अध्याय 56 के श्लोक संख्या चार में शिलातले मदं न्यस्त नास्तिकानां शब्दों में किया गया है जबकि महाकवि कालिदास ने भी काली शिला तीर्थ की महिमा का वर्णन गहनता से किया है। स्कन्ध पुराण के केदारखण्ड के अध्याय 89 के श्लोक संख्या 40 से 49 में काली शिला तीर्थ की महिमा का वर्णन विस्तार से किया गया है, केदारखण्ड में कहा गया है कि सिद्धपीठ कालीमठ के पूर्व भाग में दो कोश दूर पर्वत पर रणमण्डना नाम से महादेवी हैं! वहाँ जाने पर मनुष्य स्वस्थ देवीलोक को प्राप्त करता है। शरद व बसन्त ऋतुओं के नवरात्रों में जो मनुष्य भक्ति पूर्वक भगवती काली को नैवैध चढा़ता है वह देव लोक में युगों तक पूजनीय होता है तथा वह घुंघरूओं के समूह की माला से युक्त उत्तम विमान पर सवार होकर चारों ओर अप्सराओं के समूह, गन्धवों,सिद्धों और किन्नरो से शोभायमान हो सूर्य मण्डल का भेद करके मुनिवरो के अभीष्ट एवं दु:ख रहित ब्रह्मलोक को जाता है। यह तीर्थ समस्त पापों का शमन करने वाला और सकल उपद्रवों का नाश करने वाला है! नित्य दान करने वाले मनुष्यों को यह तीर्थ ऐश्वर्य देने वाला है! इस पर्वत पर महाकाली ने आकाश में उछलकर अत्यन्त दृढ़ हाथों से पृथिवी को ताडित किया था।आज भी वहाँ हाथों का अत्यन्त निर्मल चिह्न दिखाई देते हैं , तपस्या की सिद्धि देने वाला यही उत्तम स्थान है, इस पर्वत पर सिद्ध, गन्धर्व और किन्नर देवी के साथ सुखपूर्वक विचरण करते है।भगवती काली का पावन तीर्थ काली शिला की पूजा - अर्चना करने से मनुष्य को पुत्र पौत्रादि की प्राप्ति व यश वृद्धि का अभीष्ट फल मिलता है! इस तीर्थ में दशकों से बाबा बरखा गिरी। मुक्तेश्वर गिरी व जर्मनी निवासी सरस्वती माई भगवती काली की भक्ति में तत्लीन है! शिक्षाविद देवानन्द गैरोला,चन्द सिंह नेगी इं0कृष्ण कुमार सिंह बिष्ट अनिल जिरवाण,धीर सिंह नेगी विनोद नेगी साध्वी सरस्वती बताते है कि इस तीर्थ में एक रात्रि निवास करने से मनुष्य को परम आनन्द की अनुभूति होती है! हरेन्द्र खोयाल,शिव सिंह रावत,रवींद्र भट्ट. दलीप रावत, मदन भटट् रणजीत रावत का कहना है कि काली शिला तीर्थ में भगवती काली की विशाल शिला की परिक्रमा का विशेष महत्व माना गया है।
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