प्रेम की वेदना
प्रेम और वेदना, इन दोनों शब्दों
का मेल ही बड़ा विचित्र है,
एक शब्द है वेदना, जिसे सुनकर, पढ़कर ही मन उदास सा हो जाता है।इसके ठीक उलट दूसरा शब्द है प्रेम, जो सुनकर, पढ़कर, महसूस करके ही आंनद की अनुभूति होने लगती है।
क्या प्रेम वेदना दे सकता है?
वाक्य भले ही छोटा सा हैै, लेकिन है बड़ा ही विचलित करने जैसा, प्रेम तो परिभाषित ही आंनद को करता है, फिर उसमें वेदना का क्या महत्व, यदि वेदना होगी भी तो उसके पीछे का कारण निश्चित ही प्रेम नहीं हो सकता, प्रेम तो स्वयं परमात्मा का स्वरूप है, फिर उसमे वेदना कैसी।।।
ये मात्र हमारे मन की मनोदशा ही है जो हम प्रेम को अलग रूप से परिभाषित कर लेते है, जिसके फलस्वरूप होने वाला कष्ट ही है जो हमें वेदना लगता है,
इस संसार में अब तक जितने भी ग्रंथ लिखे गए हैं वो सभी प्रेम से प्रेरित होकर ही लिखे गए हैं,
प्रेम बांटता नहीं है बल्कि जोड़ने का काम करता है, यहां पर ये सवाल भी उठता है कि जुड़ना कैसा?
आखिर हमारे जीवन में ऐसा क्या है जो हमें प्रेम से जोड़े रखता है, आखिर हम क्यों प्रेम के बिना अधूरे हैं।
वास्तव में हमारा मूल ही प्रेम है, और हम है की अपनी मन की मती के आगे उस प्रेम को ही भूल जाते हैं जो हमारे जीवन का आधार है, और इस तरह भटकने की स्थिति के परिणाम स्वरूप ही हमें जिस पीड़ा का एहसास होता है वो ही वेदना है,
वेदना ही है जो हमें प्रेम से अलग कर देती है, क्योंकि हम उस आंनद की स्थिति तक पहुंच ही नहीं पाते हैं जहां सिर्फ प्रेम ही प्रेम है।
जीवन पथ पर कर्म करने से भले ही आपको उसका परिणाम अच्छा या बुरा कर्म के अनुरूप मिलता है, जबकि जीवन में प्रेम की अनुभूति होने पर मात्र आंनद ही प्राप्त होता है, आंनद भी ऐसा जहां सुख और दुख का भी कोई स्थान नहीं रहता, आंनद तो मात्र आंनद है, उसे किसी दूसरे रूप से भी परिभाषित नहीं किया जा सकता।
प्रेम जीवन पथ पर चलने का आधार है,
और वेदना उस लक्ष्य से भटकने का ही परिणाम है।
रजनीश डिमरी
रविग्राम जोशीमठ
जिला चमोली