ऊखीमठ ! धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं को अपने आंचल में समेटे केदार घाटी के मध्य हिमालयी भू-भाग में बसा ऊखीमठ अनादि काल से साधना व आस्था का केन्द्र रहा है! यह स्थान जहाँ धार्मिक गाथाओं से ओतप्रोत है वही प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण होने के कारण मनोहारी भी है। इस स्थान पर भगवान शंकर ने ओंकारेश्वर के रूप में दर्शन दिये थे! बाणासुर की कन्या ऊषा की तपस्थली होने के कारण पूर्व में इसे ऊखामठ के नाम से जाना जाता था।
द्वादश ज्योतिर्लिंगों में अग्रणी भगवान केदारनाथ व पंच केदारों में द्वितीय केदार के नाम से विख्यात भगवान मदमहेश्वर की शीतकालीन पूजा इसी तीर्थ में होती है। भगवान ओकारेश्वर के साथ ही इस तीर्थ में पंच केदार के दर्शन का पुण्य लाभ भी मिलता है। बाणासुर की पुत्री ऊषा व भगवान श्री कृष्ण के पौत्र व राजा प्रधुम्न के पुत्र अनिरुद्ध का विवाह मण्डप युगों के इतिहास का साक्षी आज भी बना हुआ है।
स्कन्द पुराण के केदारखण्ड के 19 वे अध्याय के कुवलाशव के वंश वर्णन के श्लोक संख्या 1 से 10 तक वर्णित है कि सतयुग के महाप्रतापी राजा कुवलाशव के तीन पुत्र थे, जो बल एवं पराक्रम में प्रसिद्ध थे। उनमें से ज्येष्ठ पुत्र महायशस्वी था। उसका हर्यश्रव नामक पुत्र हुआ! हर्यश्रव का पुत्र निकुम्भ हुआ, जो धर्म जानने वालों में श्रेष्ठ था। निकुम्भ का पुत्र श्रंहतास्व और उसका पहला पुत्र कृसास्व और दूसरा पुत्र अकृसास्व था। कृसास्व की पत्नी दृषवंति परम सुन्दर थी! कृसास्व के एक पुत्र और एक कन्या हुई।
कन्या का हेमवती और पुत्र का नाम प्रश्नेजित था। प्रश्नेजित का पुत्र युवनाश्व हुआ तथा युवनाश्व की सौ कन्याएं थी। उनके कुलगुरु ने राजा युवनाश्व को बताया कि तुम्हें पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ करना पड़ेगा।यज्ञ समपन्न होने के फलस्वरूप तुम्हें एक अभिमंत्रित जल कलश प्राप्त होगा, जिसमें से तुम्हें एक अंजलि जल सभी रानियों को पिलाना होगा, तभी तुम्हें पुत्र की प्राप्ति होगी, राजा युवनाश्व द्वारा पुत्रेष्ठी यज्ञ समपन्न किया गया और यज्ञ सम्पन्न होने पर युवनाश्व राजा को अभिमंत्रित जल कलश प्राप्त हुआ। राजा युवनाश्व द्वारा अभिमंत्रित जल कलश को अपने सयन कक्ष में रखा गया, जिससे राजा को एक रात में अनोखा सपना हुआ और सपने की बैचेनी से राजा युवनाश्व द्वारा अभिमंत्रित जल को स्वयं ग्रहण कर दिया गया। उसके बाद राजा युवनाश्व की छाती फटी और उनका एक पुत्र उत्पन्न हुआ, माँ की कोख से पैदा न होने के कारण बालक का नाम मान्धाता रखा गया! समय रहते मान्धाता चक्रवर्ती सम्राट बना और चौथी अवस्था में हिमालय की गोद में आकर ऊखीमठ में भगवान शंकर की तपस्या में लीन हो गया। राजा मान्धाता की तपस्या से खुश होकर भगवान शंकर ने उन्हें ओकारेश्वर रूप में दर्शन दिये और वरदान मांगने को कहा, जिस पर राजा मान्धाता ने भगवान शंकर से विनती भरे स्वर में कहा कि हे प्रभो ----- आपको विश्व कल्याण व भक्तों के उद्धार के लिए इसी स्थान पर निवास करना होगा। राजा मान्धाता की विनती पर भगवान शंकर ओकारेश्वर रुप में पूजित हुए। वैदिक काल से इस क्षेत्र का विशेष महत्व रहा है और तभी से यह भूमि ऋषि, महर्षियों को अपनी ओर आकर्षित करती रही है ।
भगवान ओकारेश्वर की पावन धरती युगों - युगों से भारतीय संस्कृति के निर्माता ऋषियों के लिए पूजनीय रही है! भगवान ओकारेश्वर का पावन तीर्थ भगवान केदारनाथ व भगवान मदमहेश्वर के शीतकालीन गद्दी स्थल के रुप में भी विख्यात है क्योंकि दोनों धामों के कपाट बन्द होने के बाद भगवान केदारनाथ व भगवान मदमहेश्वर की पूजाये इसी तीर्थ में सम्पन्न होती है इसलिए इस तीर्थ में पूजा करने से सौ गुणा फल की प्राप्ति होती है! इस तीर्थ में पंच केदारो , बाराही देवी, केदार पुरी के क्षेत्र रक्षक भैरव, माँ चण्डिका के साथ ही ऊषा अनिरुद्ध का विवाह मण्डप विधमान है इसलिए जो व्यक्ति पंच केदारो की यात्रा नहीं कर पाते उनको द्वारा ओकारेश्वर मन्दिर में पूजा करने से उनके मनोरथ सिद्ध हो जाते इस तीर्थ में जो मानव सच्ची श्रद्धा से भगवान ओंकारेश्वर सहित पंचकेदारों का स्मरण करता है उसके मन को अपार शक्ति व शांति प्राप्त होती है।।