क्या तुम्हारा सिर्फ इतना कहना भर बहुत था कि मुझे तुमसे प्रेम है - ज्योत्स्ना जोशी

क्या तुम्हारा सिर्फ इतना
कहना भर बहुत था कि
मुझे तुमसे प्रेम है 
हथेलियां हमेशा नाकाम ही
रही उस स्पर्श की अकुलाहट
महसूसने में 
वो एक आभास जिसने मेरे
रात और दिनों के रंग बदल दिये
वो बदले हुए रंग मेरे अधूरे पलों
में मेरा मखौल उड़ाते हैं
और फिर ठहरते हैं उस एक शब्दावली पर
क्या तुम्हारा सिर्फ इतना
कहना भर बहुत था कि
मुझे तुमसे प्रेम है
माना कि प्रेम पीड़ा है
मगर अब काजल बिखरता
नहीं नयन से मेरे
क्योंकि वो सूख गए हैं
उस अंतहीन क्षितिज को
ताकतें ताकतें
और दृष्टि परावर्तित होकर
थम सी गई है उस एक
अवधारणा पर
क्या तुम्हारा सिर्फ इतना
कहना भर बहुत था कि
मुझे तुमसे प्रेम है
अगर मेरी घड़ी की सुइयां
तुम्हारे अनुरूप खिसकती हों
और तुमसे संवाद का एक अदद
बाट जोहती हों
तो क्या मैं विवश नहीं हो जाती
हूं ये विचार ने के लिए
कहीं मैं तुम्हारी सहुलियत का
सामान तो नहीं
गांठ दर गांठ इन अनसुलझे
धागों को खोलती हुई
मेरी उंगलियां तक सी गई है
उस एक वितृष्णा पर
क्या तुम्हारा सिर्फ इतना
कहना भर बहुत था
कि मुझे तुमसे प्रेम है।
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                           ज्योत्स्ना जोशी



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