- *स्मृति*
*खंड एक*
अंतर्मन सीपी में जब प्रेम मोती का भान हुआ
ऐसा लगता था मानो पूरा जीवन ही महान हुआ।
किन्तु रह गयी अनर्गल व्यथा यह मेरे मन में
मोती कब तक वसन करेगा सीपी के उत्तल तन में।
छणिक तो नही कहीं यह सजख का तरु जीवन में
अखण्ड न रह पाया यज्ञ जब स्वयं राम का भुवन में।
छणिक ही हो मगर आया था वह विषाद हरने को
मौन व्यथा को अनायास ही छिन्न भिन्न करने को।
सुंदरता जो प्रत्यक्ष थी, नयन में दीप्ति जो भर दे
मगर भीतर से सहजता वह देवताओं को नतमस्तक कर दे।
नयनों में वह अरुणिमा थी, मानो वैन की आग
ललाट पर एक चिह्न था, जैसे इंदु पर दाग।
मगर हत्तप्रभ करता है नही रूप रंग का अहंकार
अधरों पर बोल कठोर नही मैन में कोई विकार।
हाँ विकार तो होता है जब जन्म लिया मानव का
सच है मगर श्रेष्ठ वही है, हृदय हो जिसका नभ सा।
विकार होते नही, भौतिक जगत में जो दिखते
भौतिकता के उपासक, कौड़ी के भाव हैं बिकते।
हृदय विशाल लिए जिसने, स्वीकारा था इस अदिश को
जीवन के चंचल प्रवाह को साध लाया सदिश को।
चकित था मन देख समर्पण यह उसका
सूर्य समान तेजस्वी, प्रबल चरित्र अडिग था जिसका।
अस्मिता से बहुत प्रेम था, कीर्ति धन था उसका
कुटिल सामाजिक मर्यादा से खिन्न मन था उसका।
विभा मंडल से प्रकट हुई, या भूमंडल की विभा
सुप्त चेतना को जागृत कर दे ऐसी वह सुंदर प्रभा ।
कद कुछ लघु था उसका , पर विशाल कल्पना की स्वामिनी
चाल उसकी तड़ित जैसी ओर शौर्य की वह धनी
आंखों को तो छितिज ही है जीवन का अखिल विस्तार
आज दे रहा स्मृति को उसकी में शब्दों से आकार ।
अभिषेक जोशी
गोपेश्वर